भारतीय संसद के वित्तीय समिति के कार्य एवं शक्तियों की विवेचना कीजिए ।

वित्तीय समिति

भारतीय संसद के वित्तीय समिति के कार्य एवं शक्तियों की विवेचना कीजिए ।


वित्तीय शक्तियां एवं कार्य :-

संसद 🏛️की सहमति के बिना कार्यपालिका 🏛️न ही किसी कर की उगाही कर सकती , न ही कोई कर लगा सकती और न ही किसी प्रकार का व्यय 💰कर सकती है । इसीलिये बजट को स्वीकृति के लिये संसद के समक्ष रखा जाता है । बजट के माध्यम से संसद सरकार को आगामी वित्त वर्ष में आय एवं व्यय की अनुमति प्रदान करती है । संसद , विभिन्न वित्तीय समितियों के माध्यम से सरकार के खों की भी जांच करती है और उस पर नियंत्रण रखती है । इन समितियों में शामिल हैं - लोक लेखा समिति , प्राक्कलन समिति एवं सार्वजनिक उपक्रमों संबंधी समिति । ये अवैध , अनियमित अमान्य , अनुचित प्रयोगों एवं सार्वजनिक खर्चों के दुरुपयोग के मामलों को सामने लाती हैं ।इसीलिये , कार्यपालिका के वित्तीय मामलों पर संसद का नियंत्रण निम्न दो तरीकों से संभव हो पाता है : 

( अ ) बजटीय नियंत्रण , जो कि बजट के प्रभावी होने से पूर्व अनुदान मांगों के रूप में भी होता है । तथा 

( ब ) उत्तर बजटीय नियंत्रण , जो अनुदान मांगों को स्वीकृति दिये जाने के पश्चात तीन वित्तीय समितियों के माध्यम से स्थापित किया जाता है बजट , वार्षिकता के सिद्धांत पर आधारित होता है । जिसमें संसद , सरकार को एक वर्ष में व्यय करने के लिये धन उपलब्ध कराती है । यदि मंजूर किया धन 💰, वर्ष के अंत तक व्यय 🧾नहीं होता है तो शेष धन 💰 का छास 👤हो जाता है तथा भारत की संचित निधि 📤में चला जाता है । इस प्रक्रिया 👤को छास का सिद्धांत कहते हैं । इससे संसद का प्रभावी वित्तीय नियंत्रण स्थापित होता है तथा उसकी अनुमति के बिना कोई भी आरक्षित कोष नहीं बनाया जा सकता है । हालांकि , इस सिद्धांत के कारण वित्त वर्ष के अंत में व्यय का भारी कार्य उत्पन्न हो जाता है , जिसे मार्च रश कहते हैं ।

वित्तीय समितियाँ :-

लोक लेखा समिति

 इस समिति का गठन भारत सरकार अधिनियम 1919 के अंतर्गत पहली बार 1921 में हुआ और तब से यह अस्तित्व में है । वर्तमान में इसमें 22 (twenty-two) सदस्य हैं ( 15 लोकसभा से तथा 7 (seven) सभा से ) । प्रतिवर्ष संसद द्वारा इसके सदस्यों में से समानुपातिक प्रतिनिधित्व के सिद्धांत के अनुसार एकल हस्तांतरणीय मत के माध्यम से लोक लेखा समिति के सदस्यों का चुनाव किया जाता है इस प्रकार इसमें सभी पक्षों का प्रतिनिधित्व सुनिश्चित हो जाता है । 

सदस्यों का कार्यकाल एक वर्ष का होता है समिति में किसी मंत्री का निर्वाचन नहीं हो सकता । समिति के अध्यक्ष की नियुक्ति लोकसभा अध्यक्ष द्वारा लोकसभा सदस्यों में से की जाती है 1967 से एक परम्परा चली आ रही है कि समिति का अध्यक्ष विपक्षी दल से ही चुना जाता है । समिति के कार्यों के अंतर्गत नियंत्रक एवं महालेखा परीक्षक 🗒️( CAG ) के वार्षिक प्रतिवेदनों की जाँच प्रमुख है , जो कि राष्ट्रपति द्वारा संसद में प्रस्तुत किया जाता है नियंत्रक एवं महालेखा परीक्षक राष्ट्रपति को तीन प्रतिवेदन सौंपता है- विनियोग लेखा पर लेखा परीक्षा प्रतिवेदन , वित्त लेखा पर लेखा परीक्षा प्रतिवेदन तथा सार्वजनिक उद्यमों पर लेखा परीक्षा प्रतिवेदन । समिति सार्वजनिक व्यय में तकनीकी अनियमितता को जाँच मात्र कानूनी या औपचारिक दृष्टिकोण से ही नहीं करती बल्कि अर्थव्यवस्था को ध्यान में रखने के अतिरिक्त समझदारी और विवेक तथा उपयुक्तता के दृष्टिकोण से भी करती है , ताकि अपव्यय , क्षति , भ्रष्टाचार , अक्षमता तथा निरर्थक खचों के मामले सामने लाए जा सकें विस्तार में जाने के लिए समिति के निम्नलिखित कार्य हैं : 

1. केन्द्र सरकार के विनियोग लेखा तथा वित्त लेखा की जाँच करने के साथ ही लोकसभा में प्रस्तुत किसी अन्य लेखा की भी जाँच करना । विनियोग लेखा वास्तविक खर्च की तुलना संसद🏛️ द्वारा स्वीकृत खर्च से करता है जबकि वित्त लेखा केन्द्र🗒️ सरकार के भुगतानों💰 तथा प्राप्तियों को दर्शाता है विनियोग लेखा🧾 तथा इस पर आधारित नियंत्रक महालेखा परीक्षक 👩‍💻( सीएजी ) के लेखा प्रतिवेदन की सवीक्षा के दौरान समिति को निम्नलिखित मुद्दों पर आश्वस्त हो लेना पड़ता है 

( क ) कि जिसे पैसा भुगतान किया गया वह प्रयुक्त सेवाओं अथवा उद्देश्यों के लिए वैधानिक रूप से उपलब्ध था । 

( ख ) कि खर्च उस प्राधिकार के समनुरूपता में था जो उसका प्रशासन करता है

 ( ग ) कि प्रत्येक पुनर्विनियोग सम्बन्धित नियमों के अनुसार ही है । 

3. राज्य निगमों , व्यापार संस्थानों तथा विनिर्माण परियोजनाओं के लेखा तथा इन पर सी.ए.जी. के लेखा परीक्षा प्रतिवेदन की जाँच करना ( उन सार्वजनिक उद्यमों को छोड़कर जो कि ' सार्वजनिक उद्यमों पर गठित समिति ' को आवंटित 

4. स्वशासी एवं अर्द्ध स्वशासी निकायों के लेखा की जाँच , जिनका लेखा परीक्षण सी.ए. जी . के द्वारा किया जाता हैं।

5. किसी भी प्राप्ति ( receipt ) से सम्बन्धित सी.ए.जी. के प्रतिवेदन पर विचार करना अथवा भण्डारों एवं प्रतिभूतियों के लेखा की जाँच करना । 

6. किसी वित्तीय वर्ष में किसी भी सेवा के मद में खर्च राशि की जाँच करना , यदि वह राशि उस मद में सार्च करने के लिए लोकसभा द्वारा स्वीकृत राशि से अधिक है । उपरोक्त कार्यों को संचालित करने में समिति को सी ए जी सहयोग करता है । वास्तव में सी ए जी मित्र , दार्शनिक पथप्रदर्शक की भूमिका में होता है । समिति द्वारा निभाई जाने वाली भूमिका के बारे में अशोक चंदा , जो कि स्वयं सी.ए , जी . रह चुके हैं . कहते हैं , " विगत में समिति ने यह अपेक्षा भली - भाँति पूर्ण की है कि इसे स्वयं को सार्वजनिक व्यय पर नियंत्रण के लिए एक शक्तिशाली बल के रूप में विकसित करना चाहिए । यह दावा किया जा सकता है कि लोक लेखा समिति द्वारा स्थापित परम्पराएँ और इसके द्वारा विकसित परिपाटियाँ संसदीय लोकतंत्र की उच्चतम परम्पराओं के समनुरूपता में हैं । " तथापि समिति की भूमिका की प्रभावकारिता निम्नलिखित कारणों से सीमित हो जाती है : 

( क ) यह व्यापक अर्थों में नीतिगत प्रश्नों से अलग रहती है । 

( ख ) यह लेखा के ' शव परीक्षण ' जैसा कार्य करती है ( क्योंकि खर्च तब तक किया जा चुका होता है ) 

( ग ) यह दैनदिन के प्रशासन में कोई हस्तक्षेप नहीं कर सकती । 

( घ ) इसकी अनुशंसाएँ परामर्श के रूप में होती है तथा मंत्रालयों पर बाध्यकारी नहीं होती ।

 ( च ) इसमें विभागों द्वारा खों पर रोक की शक्ति निहित नहीं की जाती ।

 ( छ ) यह कोई कार्यकारी निकाय नहीं है , इसलिए यह आदेश पारित नहीं कर सकती । इसके निष्कर्षों पर केवल संसद कोई अंतिम निर्णय ले सकती है ।


 प्राक्कलन समिति :-

इस समिति का उत्स 1921 में स्थापित स्थाई वित्तीय समिति में देखा जा सकता है स्वतंत्रता - पश्चात पर पहली बार जॉन मथाई की सिफारिश पर 1950 में पहली प्राक्कलन समिति का गठन किया गया । मथाई उस समय वित्त मंत्री थे । मूलत : इसमें 25 सदस्य थे लेकिन 1956 में इसकी सदस्य संख्या बढ़ाकर 30 (thirty) कर दी गई । ये तीसों सदस्य लोकसभा सदस्य होते हैं । इस समिति में राज्य सभा का कोई प्रतिनिधित्व नहीं होता । इसके सदस्यों का चुनाव प्रतिवर्ष लोकसभा द्वारा इसके सदस्यों में से किया जाता है और इसमें समानुपातिक प्रतिनिधित्व के सिद्धांत का पालन एकल हस्तांतरणीय मत के माध्यम से किया जाता है समिति का कार्यकाल एक वर्ष होता है । कोई मंत्री समिति का सदस्य नहीं हो सकता । समिति का अध्यक्ष लोकसभा अध्यक्ष द्वारा लोकसभा सदस्यों में से ही नियुक्त होता है और वह निरपवाद रूप से सत्ताधारी दल का ही होता है । समिति का कार्य बजट में सम्मिलित प्राक्कलनों की जाँच करना तथा सार्वजनिक व्यय में किफायत के लिए सुझाव देना है । इसलिए इसे ' सतत् किफायत समिति '🧾 के रूप में वर्णित किया जा सकता है ।

विस्तार में समिति के कार्य निम्नलिखित हैं : 

1. प्राक्कलनों में निहित नीतियों के अनुरूप क्या किफायतें , संगठन में सुधार तथा कार्यकुशलता और प्रशासनिक सुधार प्रभावी बनाए जा सकते हैं , इस बारे में प्रतिवेदन देना । 

2 प्रशासन में कार्यकुशलता और किफायत लाने के लिए वैकल्पिक नीतियों के बारे में सुझाव देना । 

3. यह जाँच करना ✔️कि प्राक्कलन में निहित नीति📑 के अनुसार ही राशि का समुचित प्रावधान किया गया है । 

4. संसद 🏛️में प्राक्कलन🗒️ किस रूप में प्रस्तुत हों , इसके बारे में सुझाव देना👩‍💻 । समिति उन सार्वजनिक उद्यमों ✒️को अपने कार्य के दायरे में नहीं लेगी जो कि सार्वजनकि उद्यम समिति को आवंटित हैं । समिति समय - समय पर पूरे वित्तीय वर्ष के दौरान प्राक्कलनों की जाँच करती रह सकती है तथा जाँच आगे बढ़ते ही सदन को अपना प्रतिवेदन सौंप सकती है । समिति के लिए किसी एक वर्ष के समूचे प्राक्कलनों की जाँच अनिवार्य नहीं है अनुदान की माँग पर मत तब भी दिलवाया जा सकता है , जबकि समिति अब तक कोई प्रतिवेदन नहीं सौपा हो ।तथापि समिति की भूमिका निम्न कारकों से सीमित हो जाती है । 

( क ) यह बजट प्राक्कलनों की जाँच तभी कर सकती है जबकि इसके लिए संसद में मतदान हो चुका हो उसके पहले नहीं ।

 ( ख ) यह संसद द्वारा निर्धारित नीतियों पर प्रश्न नहीं कर सकती ।

 ( ग ) इसकी अनुशंसाए परामर्श के रूप में होती हैं , मंत्रालयों पर बाध्यकारी नहीं होती । 

( घ ) यह प्रतिवर्ष केवल कुछ चयनित मंत्रालयों तथा विभागों की ही जाँच करती है । इस प्रकार चक्रानुक्रम में सभी मंत्रालयों की जाँच में वर्षों लग सकते है । 

( च ) इसे सी.ए.जी. की विशेषज्ञतापूर्ण सहायता नहीं मिल पाती जो कि लोक लेखा समिति को उपलब्ध रहती है

 ( छ ) इसका कार्य शव - परीक्षण की तरह का है । 

सार्वजनिक उद्यम समिति:-

 यह समिति 1964 में कृष्ण मेनन समिति की सिफारिश पर पहली बार गठित हुई थी शुरुआत में इसमें 15 सदस्य थे ( 10 लोकसभा तथा 5 राज्य सभा से ) । हालाँकि 1974 में इसकी सदस्यता संख्या बढ़ाकर 22 कर दी गई ( 15 लोकसभा और 7 राज्यसभा से ) । समिति के सदस्य संसद द्वारा इसके सदस्यों में से एकल हस्तांतरणीय मत के माध्यम से समानुपातिक प्रतिनिधित्व के सिद्धांत के आधार पर निर्वाचित होते हैं । इस प्रकार प्रत्येक दल का प्रतिनिधित्व सुनिश्चित किया जाता है । कार्यकाल एक वर्ष का होता है । कोई मंत्री समिति का सदस्य नहीं बन सकता । 

लोकसभा अध्यक्ष लोकसभा सदस्यों में से किसी एक को समिति का अध्यक्ष नियुक्त करते हैं । इस प्रकार राज्य सभा सदस्य इस समिति के अध्यक्ष नहीं बन सकते । समिति के निम्नलिखित कार्य हैं :

 1. सार्वजनिक उद्यमों के प्रतिवेदनों एवं लेखा की जाँच करना । 

2 सार्वजनिक उद्यमों पर सी.एजी . के प्रतिवेदन की जाँच करना । 

3. यह जाँच करना कि सार्वजनिक उद्यमों का प्रबंधन ( सार्वजनिक उद्यमों की स्वायत्तता तथा कार्यकुशलता के संदर्भ में ) ठोस व्यावसायिक सिद्धांतों तथा युक्तिसंगत व्यापारिक प्रचलनों के अनुसार दिया जा रहा है

4. सार्वजनिक उद्यमों से संबंधित ऐसे अन्य कार्यों का संचालन जो लोक लेखा समिति तथा प्राक्कलन समिति के जिम्मे भी होता है जो कि लोकसभा अध्यक्ष द्वारा समय - समय पर इसके सुपुर्द किया जाता है । समिति निम्नलिखित के सम्बन्ध में कोई जाँच या अनुसंधान नहीं कर सकती :

 ( 1 ) प्रमुख सरकारी नीतियों से जुड़े मामले जो कि सार्वजनिक उद्यमों के व्यावसायिक अथवा व्यापारिक प्रकार्यों से जुड़े नहीं हों ;

 ( ii ) दैनंदिन के प्रशासन से जुड़े मामले ; 

( ii ) ऐसे मामले जिन पर विचार के लिए किसी विशेष वैधानिक प्रावधान के तहत कोई मशीनरी स्थापित की गई है , जिसके अंतर्गत कोई सार्वजनिक उद्यम विशेष की स्थापना हुई है । समिति की भूमिका की प्रभावकारिता की निम्नलिखित सीमाएँ हैं : 

( क ) यह एक वर्ष के अंदर दस से बारह से अधिक सार्वजनिक उद्यमों की जाँच के मामले नहीं ले सकती ।

 ( ख ) इसका कार्य शव - परिक्षण की तरह का है । 

( ग ) यह तकनीकी मामलों की जाँच नहीं कर सकती क्योंकि इसके सदस्य तकनीकी विशेषज्ञ नहीं होते ।

 ( घ ) इसकी अनुशंसाएँ परामर्श के लिए होती हैं . मंत्रालयों के लिए बाध्यकारी नहीं ।

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