धीमान् कीर्तवीर्य के जन्म की गाथा को कोई कहता है तो वह मानवे यथावत् स्विष्ट पूतात्मा होकर स्वर्गलोक में प्रतिष्ठा प्राप्त किया करता, Karthaveeryarjuna, कार्तवीर्यार्जुन

यदुवंश का वर्णन, उनके सभी पुत्रों के नाम और कहानी, Karthaveeryarjuna (कार्तवीर्यार्जुन) 


इस article में यदुवंश का पूरा वर्णन हैं, और यह वर्णन पुराण के आधार पर किया हैं, आप यह पुराण में भी देख सकते हैं। आपको इस अर्टिकले में यदुवंश से संबधित हर सवाल का जवाब मिलेगा। कहानी की शुरूवात महर्षि जी से होती हैं,वह कुछ सवालों के उतर देते हैं।

 कहानी:-

महा महर्षि श्री सूतजी ने कहा -- 

शनातीक राजा ने शौनक से यह जब श्रवण किया था तो वह विस्मित हो गया था और पराप्रीति से पूर्ण चन्द्र की भाँति प्रकाशमान हो गया था ।१ । 

फिर उस राजा ने पूर्ण विधान के साथ शौनक का पूजन किया था । पूजन के उपचारों में बहुमूल्य रत्न , गौ , सुवर्ण और अनेक भाँति के वस्त्र आदि सभी थे ।२ ।

 जो भी राजा के द्वारा धन प्रहित कियाथा उस सबका प्रतिग्रहण करके और ब्राह्मणों को दान करके फिर महर्षि शौनक वहीं पर अन्तर्हित हो गये थे ।३ । 

ऋषियों ने कहा -

 हे भगवन् ! अब हम सब लोग राजा ययाति के वंश का विस्तार श्रवण करना चाहते हैं । आप परमानुकम्पा करके उसका सविस्तृत वर्णन कीजिये जिस समय में वह इस लोक में यदु प्रभृति पुत्रों से समन्वित होकर प्रतिष्ठित हुआ था ।४ । 

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श्री सूतजी ने कहा

सबसे ज्येष्ठ और उत्तम तेज वाले यदु के वंश का मैं वर्णन करूंगा और विस्तार तथा आनुपूर्वी के साथ ही कहूंगा । आप लोग तब कहने वाले मुझसे सब कुछ समझ लीजिए ।५ ॥ 

पाँच पुत्रों के नाम:-

महाराज यदु के देवताओं के समान पाँच पुत्र सुमुत्पन्न हुए । ये पांचों ही महारथी और महान् इष्वास को धारण करने वाले थे ।६ ।

 इनमें सबसे बड़ा जो था वह सहस्रजि था और सबसे छोटा जो अन्तिम पुत्र था क्रोष्टुनील था । सहस्रजि का दायाद शतजि का दायाद शतजि नाम धारी पार्थिव समुदभत हआ था ॥७ ॥

शर्ताज नाम वाले पुत्र के भी दायाद परम कोत्ति वाले तीन हुए थे जिनके शुभ नाम हैहय - हय और वेणुहय थे ।। हैहय का जो दायाद उत्पन्न हुआ था वह धर्मनेत्र इस शुभ नाम प्रतिश्रुत हुआ था । 

धर्म नेत्र का दायाद कुन्ति हुआ ओर कुन्ति का आत्मज संहत नाम वाला हुआ था ।६ । 

संहत के पुत्र महिष्मान् नाम वाला पार्थिव हुआ था । महिष्मान् का पुत्र परम प्रतापधारी रुद्रौप्य ने जन्म ग्रहणकिया था । 1१०। 

यह वाराणसी में राजा हुआ था जिसका वर्णन पूर्व में ही किया जा चुका है । रुद्रवेण का पुत्र दुईम नाम वाला राजा हुआ था ।११ ॥ 

फिर इस दुईम का पुत्र परम बुद्धिमान और बल वीर्य से संयुत कनक नामवाला हुआथा । इस कनकके चार दायाद लोकमें परमप्रसिद्ध हुए थे 1१२॥ 

इन चारों के नाम कृतवीर्य - कृताग्नि - कृतवर्मा और चौथा कृतोजा ये थे । कृतवीर्य के पुत्र से ही सहस्रार्जुन समुत्पन्न हुआ था।१३।

इसके एक संहस्र हाथ थे जब इसने जन्म ग्रहण किया था और यह सातों द्वीपों का राजा हुआ था । इस राजा ने दश सहस्र वर्ष तक परम दुश्चर तपस्या की थी ।१४

कार्तवीर्य ने अत्रि के पुत्र और वरदान:-

इस कार्तवीर्य ने अत्रि के पुत्र दत्तात्रय की समाराधना की थी । हे पुरुषोत्तम ! उसके द्वारा इसको चार वरदान दिये गये थे ।१५ ॥

 सबसे प्रथम उस राजश्रेष्ठ ने एक सहस्र बाहु प्राप्त करने का वरदान मांगा था । अधर्म का समाचरण करने वाले का सत्पुरुषों से निवारण करने का वरदान प्राप्त किया था ।१६ । 

युद्ध के द्वारा सम्पूर्ण भूमण्डल पर विजय प्राप्त करके धनके ही द्वारा सब पृथिवीका अनुपालन करना प्राप्त किया था । सग्राम में वर्तमान का वध भी हो ती किसी अधिक से ही होवे ।१७ । 

उस सहस्रबाहु ने इस पृथिबी को जो सम्पूर्ण सात द्वीपों से युक्त पर्वतों के सहित और समुद्र से घिरी हुई थी उस सबको क्षात्र विधि के द्वारा ही जीत लिया था ।१८ । 

उस धीमान् की जैसी इच्छा थी उसी के अनुसार एक सहस्र बाहु समुत्पन्न हो गई थीं । रथ और ध्वज भी समुत्पन्न हुए थे ऐसा ही अनुश्रवण करते हैं ।१६ । 

उस राजा के द्वारा द्वीपों में दश सहस्र यज्ञ निर्गल उस धीमान् के निवृत्त .. हुए थे ऐसा भी सुना जाता है ।२० । 

उस महान् राजा के सभी यज्ञ अत्यधिक दक्षिणा वाले सम्पन्न हुए थे । उन सभी यज्ञों में सुवर्ण के युप थे और सभी सुवर्ण की वेदियों वाले थे ।२१ ।


सब विमानों में स्थित देवों के साथ प्राप्त हुए गन्धर्व और अप्स राओं से समलंकृत नित्य ही उपशीमित रहा करते थे ।२२ । उससे यज्ञ में गन्धर्व तथा नारद ने कातवीर्य राजपि की महिमा को देखकर उनकी गाथा का गायन किया था ।२३ ।

 निश्चय ही क्षत्रिय गण कातवीर्य की गति को नहीं प्राप्त होंगे जिस प्रकार के इसके यज्ञ - दान - तप विक्रम और श्रत आदि हैं इस तरह के सभी विधान अन्य भत्रियों के " के सर्वथाहै ही नहीं ।२४ । 

वह सहस्रबाहु राजा खडग धारण करनेवाला है ही नहीं ।२४ । 

वह सहस्रबाहु राजा खड्ग धारण करने वाला तथा शरासन ग्रहण किए रथी सातो द्वीपों में अनुचरण करते हुए योगी तस्करों को देखा करता था ।२५ ।

 वह नराधिप पिचासी सहस्र वर्षों तक सम्पूर्ण रत्नों से सम्पन्न होता हुआ इस भूमण्डल का चक्रवर्ती सम्राट हुआ था ।२६ । 

वही पशुओं के पालन करने वाला हुआ था और वह ही क्षेत्रपाल भी हुआ था । बह वृष्टि के द्वारा पर्जन्य हुआ था और योगी होने के कारण से वही अर्जुन हो गया था ।२७ ।

एक सहस्य:-

यह सम्राट एक सहस्य बाहुओं के द्वारा धनुष को डोरी के घातों से कठिन त्वचा से युक्त शरदकाल का एक सहस्र रश्मियों से सम्पन्नहो रहा था ।२८ । 

महान् मति वाले इसने महिष्मती पुरी में मनुष्यों के मध्य में कर्कोटक के पुत्र नाग को जीतकर उसी पुरी में निवेशित कर दिया था ।२६ । 

यह प्राट् काल में भी समुद्र के वेग का सेवन किया करता था । यह महामति प्रतिस्रोत में सुख में उभिन्ना होता हुआ कोड़ा करता हुआ था विचरण किया करता था ।३० । 

उसने प्रति सग्दाय मालिनी ललता क्रीड़ित की थी । अमि भृकुटी में सन्त्रास में नर्मदा चकित होकर उसके समीप में आ गई थी ।३१ ।

 वह एक अपनी सहस्रबाहुओं से महार्णव के अवगाहन करने पर उद्यत वेग वाली नर्मदा को प्रावृड हाता करता है ।३२ ॥ 

उसकी सहस्रबाहुओं से महोदधि के क्षोम्यमान होने पर पाताल में संस्थित महासुर अत्यन्त ही निश्चेष्ट हो जाते है ।३३ । 

सहस्र हाथों में सागर का आलोड़न करता हुआ ही उसको तोड़ी हुई महान् तरङ्गों में विलीन मीन ओर महातिमि बाला - मारुतसे आबिद्ध फेनों के ओध वाला तथा आवतो ( भेवरों ) के समक्षिप्त होनेसे दुःसह करता है । उस समय में मन्दार के क्षोभ से चकित अमृत के उत्पादन को शङ्का वाले महारंग निश्चल मूवाले हो जाते हैं । जिस प्रकार से सायाह्न समय में निर्वात से स्तिमित कदली खण्डों की दशा होती है वैसी दशा महोरगो की थी ।३४ २६ ।

लङ्कापुरी में सबल रावण को बलपूर्वक मोहित करके पांच शरों से उत्सित करके धनुष की ज्या में इस प्रकार से बांध दिया था और उसको जीत करके तथा बद्ध करके माहिष्मती अपनी पुरी में ले आया था तथा बाँधकर रख छोड़ा था । इसके अनन्तर पुलस्त्य ऋपि वहाँ आये थे और उन्होने सहबाजुन को प्रसन्न किया था।३७-३८ । 

पुलस्त्य ऋषि ने यहाँ पर सान्त्वना दी थी और फिर पौलस्त्य ( रावण ) को छोड़ दिया था । उसकी सहन वाहुओं में ज्या तत्व का शब्द हुआ था ।३ ९ ।

 यह घोष उसी भांति हुआ था जैमा कि युगान्त के समय में होने वाले सहस्रों मेघोके आस्फोट से अगनि का घोष हुआ करता है । बडी ही प्रसन्नता की बात है कि विधाता के वीर्यटन भार्गवने छिन्न किया था ।४० । जिस समय में भार्गव प्रभु ने इसकी ' सहस्रबाहुओं का छेदन हेमताल वन की भांति किया था और जहाँ पर आप प्रभु ने सकद्ध होकर अर्जुन को शाप दिया था - हे हैयण ! क्योंकि मेरा परम विधत बल तुमने प्रदान कर दिया इसलिए इस दुस्तर कर्म को कृतमन्य हरण करेगा ।४१-४२ । 

बलवान तपस्वी और ब्राह्मण भार्गव पहिले बेग के साथ तेरी सहस्रबाहुओं का छेदन करके फिर तेरा वही वध भी कर देंगे । ४३ । 

Question from question hub:-


In karthaveeryarjuna family who had 100 sons? 
कार्तवीर्यार्जुन परिवार में किसके 100 पुत्र थे? 

सूतजी ने कहा - उस समय में उसकी मृत्यु शाप के द्वारा राम ही थे । धीमान ने राजर्षि से पहिले ही इस प्रकार का वरदान स्वयं ही वरण कर लिया था ।४४ ।

 उसके एक सौ पुत्र हुए थे उनमें पांच तो महारथ थे । ये सब ताम्र बलशाली , शूरवीर , धर्मात्मा और महान् बल वाले थे ।४५

 हे विशाम्पते ! शूरसेन , शूर , धृष्ट , कोष्ट , जयध्वज , वैकर्ता और अवन्ति ये उनके नाम थे ।४६ ।


 जयध्वज का पुत्र महान बलवान तालजंघ हुआ था । उसके भी एक सौ पुत्र थे जो पुत्रथे जो सर्व ताल जंघ इसी नाम से प्रसिद्ध थे ।४७ । 

उन हैयय महात्माओं के पांच कुल विख्यात थे । वीति होत्र - शाति - भोज - अवन्तिप - कुण्डिकेरा - विक्रान्त और तालजंध थे । वीतिहोत्र का पुत्र भी आनत्त नाम वाला महान् वीर्यवान् हुआ था । उसका पुत्र दुर्जय था जो शत्रुओं का दर्शन करने वाला था।४८-४६ ।


हे महाराज ! कातवीर्यार्जुन नाम वाला राजा एक सहस्रबाहुओं से समन्वित था और सद्भावना से धर्म के साथ प्रजा का परिपालन किया करता था ।५० ।

 वह ऐसा प्रतापी राजा हुआ था जिसने अपने धनुष के द्वारा सागर पर्यन्त भूमि को जीत लिया था । जो मानव प्रात : काल में ही उठकर उसके शुभ नाम का कीर्तन किया करता है उसके वित्त का कभी भी नाश नहीं होता है और जो किसी का वित्त नष्ट भी हो गया हो तो यह नष्ट हुआ धन पुनः प्राप्त हो जाया करता है । परम धीमान् कीर्तवीर्य के जन्म की गाथा को कोई कहता है तो वह मानवे यथावत् स्विष्ट पूतात्मा होकर स्वर्गलोक में प्रतिष्ठा प्राप्त किया करता है।५१-५२ । "



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