मन पर विजय

मन पर विजय  पर की प्राचीन कथा 


मन पर नियंत्रण प्राप्त व्यक्ति सदैव जीवन के लक्ष्य को केन्द्र में रखता है और दूसरों के व्यवहार से उत्तेजित नहीं होता ।


हममें से प्रत्येक व्यक्ति जाने - अनजाने में दूसरे लोगों को प्रभावित करता है एक अध्ययन के अनुसार सबसे अंतर्मुखी व्यक्ति भी अपने जीवनकाल में कम - से - कम दस हजार लोगों को प्रभावित करता है । यह जानकर बुद्धिमान व्यक्ति अवश्य विचार करेगा , “ यदि बिना प्रयास किये भी मैं इतने लोगों को प्रभावित करता हूँ , तो क्यों न मैं अपनी चेतना में सुधार करूँ , जिससे मैं अपने सम्पर्क में आये लोगों पर सकारात्मक प्रभाव छोड़ सकूँ ? " 

आयें ऐसी स्थिति का विश्लेषण करें | जिससे प्रत्येक व्यक्ति दूर रहना चाहता है , परन्तु कई बार रह नहीं पाता । मान लें क्रोधवश कोई मेरा अपमान करता है । उस समय मुझे चुनाव करना होगा कि मैं पलटकर कुछ कहूँ अथवा क्रोध न करूँ । निःसन्देह , यदि मैं आत्मनियंत्रित नहीं हैं तो मैं भीतर से प्रतिशोध लेने के बाध्य होऊँगा और अवश्य क्रोध में मूर्ख प्रतीत होते कहार के मुख से परम सत्य का ज्ञान सुनकर राजा रहूगण लज्जित हो गये और तुरन्त पालकी से उतरकर जड़भरत क्षमा माँगने लगे ।

कुछ कह बैलूंगा । परिणाम होगा मानसिक | भावना असंतुलन । मैं भूल गया कि मेरी एक शिक्षक , अंत छात्र , पिता , माता , पुत्र , पुत्री अथवा अन्य कोई भूमिका है और अपने व्यवहार द्वारा इन सम्बन्धों को कायम रखना मेरा उत्तरदायित्व है । अनियंत्रित क्रोध का अन्त होता है पश्चाताप में । किन्तु पश्चाताप भी अच्छा है क्योंकि कम - से - कम यह हमें सुधरने की प्रेरणा देता है । 

जो व्यक्ति समझ जाता है कि निम्न गुणों का सेवक होने के कारण उसकी स्थिति अत्यन्त दयनीय है , वह सन्तुलन स्थापित करने का सही पात्र होता है । सच्चा व्यक्ति स्वीकार करता है कि वह दूसरों की भावनाओं तथा उनके निर्णयों को नियंत्रित नहीं कर सकता , और यदि नियंत्रित कर सकता है तो केवल अपने मन को ।

 आवश्यक नहीं कि जिस व्यक्ति को आक्रामक होने की आदत होती है केवल वही आक्रामक व्यवहार करता है । हमें स्मरण रखना होगा कि इस संसार में कोई भी व्यक्ति फिसल सकता है और अप्रिय व्यवहार कर सकता है । यदि मुझे उत्तेजित करने वाला व्यक्ति नैतिक रूप से भ्रष्ट हो गया है तो इसका अर्थ हुआ कि उसने अपनी पश्चाताप अथवा ग्लानि की भावना की बार - बार उपेक्षा की है । उसे अपने अंत : करण की आवाज पर ध्यान न देने की आदत हो गयी है ।

 उसके हृदय में विराजमान परमात्मा ने इस हठी व्यक्ति को इतना कठोर बनने की अनुमति दी है जिससे उसे दूसरों की कोई परवाह नहीं होती । ऐसा व्यक्ति अपने ही विचारों की नगरी बनाकर उसमें राज्य करने में सुख लेता है और जो कोई उसकी सत्ता को चुनौती देता है वह उस घुसपैठिए पर हिंसक आक्रमण करता है । 

किन्तु ऐसा व्यक्ति सदैव भय से भरा होता है । और यदि मैं भी उसी के समान अंधाधुंध व्यवहार करूँगा , तो केवल अपने दुर्भाग्य को आमंत्रित करूँगा । परन्तु यदि मैं आध्यात्मिक बुद्धि द्वारा व्यवहार करता हूँ तो दोनों पक्षों का लाभ होगा ।

मन पर विजय,चंचल मन पर काबू पाने से मनुष्य को मिलते,  चंचल की निर्मलता ही सर्वश्रेष्ठ ,


 वाक्पटुता द्वारा उद्धार

 मन के ' आवेग तथा क्रोध की शक्ति को नियंत्रित करने का यह पुरस्कार मिलता है कि हम सूक्ष्म वास्तविकताओं को समझने लगते हैं । सूक्ष्म शक्ति स्थूल शक्ति से अधिक बलवान है । उदाहरण के लिए , लेज़र तकनीक द्वारा किये गये ऑप्रेशन चाकू द्वारा किये गये | ऑप्रेशन की तुलना में अधिक सटीक रहते | हैं ।

 इसी प्रकार हमें ध्यानपूर्वक शब्दों का चुनाव करके अपनी वाणी द्वारा दूसरों को ऊपर उठाने का प्रयास करना चाहिए ; यहाँ तककि अपने शत्रुओं को भी । व्यक्ति जितना अधिक अपने मन के वेग को नियंत्रित करके उसे उच्च कार्यों की ओर मोड़ता है , उसकी चेतना उतनी अधिक लेज़र जैसी होने लगेगी 

श्रीकृष्ण कहते हैं - " जो व्यक्ति इस मार्ग पर होते हैं उनकी बुद्धि दृढनिश्चयी होती है और उनका लक्ष्य भी एक होता निराभिमानी होने के कारण जड़ भरत ने न तो राजा को दोषी ठहराया और न ही मूर्ख होने के आरोप को स्वीकार किया । है ।

 हे कुरुनन्दन ! अस्थिर चित्त वाले लोगों की बुद्धि अनेक शाखाओं में विभाजित रहती है । " ( गीता 2.41 ) 

स्वयं को नियंत्रित करने से क्या होता हैं:-

जब व्यक्ति स्वयं को नियंत्रित करने का प्रयास करता है तो वह इन्द्रियभोग तथा अहंकारभरे स्वामित्व की भावनाओं से ऊपर उठने लगता है । 


QUESTION FROM QUESTION HUB:-

यदि मन में लगन हो तो विषम परिस्थिति पर भी विजय प्राप्त करना असंभव नहीं होता | 

ANSWER:- 

यदि मन में किसी काम को पूरी तरह से ध्यान लगाकर या लग्न से करे तो कोई भी कठिन या बड़ी मुश्किल परिस्थित भी आ जाये, तब भी हम विजय प्राप्त कर सकते हैं। हम असंभव कार्य को भी संभव कर सकते हैं। 

मन पर विजय पर प्राचीन कथा नीचे दी गयी हैं। 





कथा
एक राजा ने पायी सहनशीलता की शिक्षा

 मन पर नियंत्रण प्राप्त व्यक्ति सदैव जीवन के लक्ष्य को केन्द्र में रखता है और दूसरों के व्यवहार से उत्तेजित नहीं होता । 

श्रीमद्भागवतम् में महाराज रहूगण का प्रसंग आता है जो अपने सेवकों द्वारा उठायी जा रही पालकी में यात्रा कर रहे थे । एक स्थान पर उन्हें एक मंदबुद्धि दिखता युवक मिला और उन्होंने उसे पालकी ढोने में जोत लिया । 

सेवकों ने सोचा था कि उससे पालकी उठवाकर उन्हें थोड़ी राहत मिलेगी । परन्तु वे नहीं जानते थे कि वह

युवक एक आत्मज्ञानी संत था जो प्रत्येक जीव को समान दृष्टि से देखता था । उसका नाम था जड़ भरत । जड़ अर्थात् मंदबुद्धि । राजा की पालकी उठाते हुए जड़ भरत भूमि पर चलती चींटियों को देखने लगा ।

कहीं वे उसके पैरों तले कुचली न जायें , यह विचार करके वह बीच - बीच में उछल जाता । इससे पालकी डगमगाने लगी । 

राजा को क्रोध आ गया । उसने इस नवयुवक की भर्त्सना करते हुए कठोर दण्ड की चेतावनी दी । 

और तब बाहर से मन्दबुद्धि दिखने वाला यह युवक बोलने लगा । उसने राजा से कहा कि राजा के अपमानजपक एवं व्यंगात्मक शब्द असत्य नहीं हैं , परन्तु वे केवल शरीर से सम्बन्धित हैं , जबकि शरीर उस चिन्मय आत्मा से पूरी तरह अलग है जो शरीर के भीतर निवास करती है । 

यह कहना कि एक आत्मा दूसरी आत्मा पर शासन करती है , त्रुटिपूर्ण है । यह बात शरीर के लिए सही हो सकती है । जड़ भरत ने कहा आज तुम राजा हो और मैं तुम्हारा सेवक , परन्तु कल स्थिति पलट सकती है । मैं तुम्हारा स्वामी और तुम मेरे सेवक बन सकते हो ।


नियति द्वारा इन अस्थाई स्थितियों का निर्माण होता रहता है । " शरीर में बंधी आत्मा के अस्तित्त्व का वर्णन करते हुए जड़ भरत सहज नम्रतापूर्वक बोल रहे थे । उनकी वाणी में शुद्ध भक्त की भावना थी । वे बोले , " राजन् , आपने कहा कि मैं हट्टा - कट्टा बलशाली नहीं हूँ । 

ये शब्द उसके लिए योग्य हैं जो शरीर और आत्मा के भेद को नहीं जानता । शरीर मोटा - पतला हो सकता है , परन्तु विद्वान् व्यक्ति आत्मा के लिए कभी ऐसी बात नहीं कहेगा । 

" यह कहकर जड़ भरत शान्त हो गये और जिस काम के लिए उन्हें बुलाया गया था उसे करने के लिए दुबारा तैयार थे । दिये गये ज्ञान के बदले उन्हें सम्मान - अपमान की कोई अपेक्षा नहीं थी । 

निराभिमानी होने के कारण जड़ भरत ने न तो राजा को दोषी ठहराया और न ही मूर्ख होने के आरोप को स्वीकार किया । उन्होंने शान्त मन एवं वाणी से राजा की चेतना पर पड़े तमोगुण एवं रजोगुण के बादलों को हटाने का प्रयास किया । 

तब वे स्वयं को पूर्वकर्मों के प्रभाव से मुक्त होने के लिए पुन : पालकी ढोने के लिए तैयार हो गये । क्रोधवश प्रतिशोध लेने के स्थान पर आत्मनियंत्रित व्यक्ति करुणा के मार्ग का चुनाव करता है । 

जानता है कि घृणा करने वाला व्यक्ति स्वयं अपने हित के प्रति अन्धा हो चुका है । भ्रमित आत्मा की स्वाभाविक दिव्यता भौतिक शक्ति के प्रभाव में लिए गये निर्णयों द्वारा आच्छादित हो गयी है । ऐसा व्यक्ति भीतर से दुर्बल होता है मूल रूप से प्रत्येक आत्मा शुद्ध है । 

संत व्यक्ति इस प्रकार व्यवहार करता है जिससे दूसरा व्यक्ति अपनी मूल शुद्ध स्थिति में स्थित हो सके । चूँकि वह आत्मा के मूल सौन्दर्य को जानता है , वह सरलतापूर्वक दूसरों के दोषपूर्ण व्यवहार को सहन कर पाता है । वह घृणा का उत्तर करुणा से देता है । उसके शब्द शाश्वत सत्य पर आधारित होते हैं ।


आत्म - नियंत्रण और सभ्यता वर्तमान विश्व की स्थिति देखते हुए आत्म - नियंत्रण की आवश्यकता का अधिक अनुभव होता है । आजकल जहाँ देखो युद्ध के बादल छाये रहते हैं । 

प्रगत देश विज्ञान और तकनीकी प्रगति को शिक्षण , स्वास्थ्य  तथा अपराधों के समाधान के रूप में प्रचारित करते हुए अपनी धारणाओं को निम्न दर्जे के लोगों पर थोप रहे हैं । 

विश्व के प्रायः प्रत्येक भाग में महान् संतों ने प्रत्येक सामाजिक विषय का समाधान दिया है , परन्तु विज्ञान और तकनीकी प्रगति में कहीं उन्हें महत्व नहीं दिया जाता । आर्थिक एवं सैन्य दृष्टि से दुर्बल देशों को उज्ज्वल भविष्य के लिए विज्ञान की नयी खोजों को स्वीकार करने के लिए बाध्य होना पड़ता है । 

परन्तु यदि हम केवल आर्थिक एवं सैन्य दृष्टि से शक्ति बन जाते हैं और आत्मा की दृष्टि से अंधे रहते हैं , तो इसका परिणाम हताशा और दुःख होगा । 

प्रहलाद महाराज कहते हैं - " जिस प्रकार अंधे व्यक्ति का हाथ पकड़कर चलने वाला दूसरा अंधा सही मार्ग से भटककर गड्ढे में गिर जाता है , उसी प्रकार भौतिक रूप से आसक्त व्यक्ति का अनुगमन करने वाला आसक्त व्यक्ति भी सकाम कर्मों की मजबूत रस्सियों से बंध जाता है और फलत : बारम्बार सांसारिक जीवन में आवागमन करते हुए तीन प्रकार के कष्ट भोगता है । " ( श्रीमद्भागवतम् 7.5.31 ) 

जिस संस्कृति में केवल पैसे का बोलबाला है , उसके पागलपन को रोकने का क्या मार्ग है ? चरित्र का विकास एवं साहस । जिस प्रकार जड़ भरत ने अपने उदाहरण द्वारा दिखाया सच्चा आध्यात्मिक ज्ञान धारण करने वाले सौभाग्यशाली लोगों को चाहिए कि वे अपने मार्ग में दृढ़ रहें और साहसपूर्वक परम सत्य का प्रचार - प्रसार करें । 

उन्हें अपने कार्यों के बदले में कोई अपेक्षा नहीं रखनी चाहिए । उनके ऐसे कार्यों से परम भगवान् सन्तुष्ट होंगे , केवल यही विचार करके उन्हें आंतरिक शान्ति का अनुभव करना चाहिए ।

दुनिया के नेता अपने नागरिकों को आत्मनियंत्रण की सरल शिक्षा देकर उन्हें अधिक सन्तुष्ट बना सकते हैं । इस लक्ष्य को प्राप्त करने के लिए वे उन लोगों को शिक्षक नियुक्त कर सकते हैं जिन्होंने पहले ही इस अवस्था को प्राप्त कर लिया है ।

 देश का हित तभी सम्भव है जब देश के नागरिकों को अपना हित स्पष्ट होगा । और वह हित है समर्पण के साथ भगवान् की सेवा करते हुए अपने विचारों एवं कार्यों में सामंजस्य स्थापित करना । भगवान् के अतिरिक्त कौन है जो प्रत्येक व्यक्ति की इच्छाओं , पीड़ाओं , संघर्षों , भावनाओं तथा उत्कण्ठाओं को जान सकता है ? 

सच्चा नेता कौन है:-

सच्चा नेता वह है जो अपने नागरिकों को शास्त्रों तथा आत्मनियंत्रण में दक्ष संतपुरुषों पर श्रद्धा बढ़ाने की शिक्षा देता है । चलिए पुन : अपमान के मूल विषय पर लौट आयें । यहाँ मैं एक साधक हूँ जो आध्यात्मिक पथ पर चलने का प्रयास कर रहा है । तभी एक अनपेक्षित आक्रमण मेरे अहंकार को गहरी चोट पहुँचाता है । 

कटीले शब्दों से आहत होकर में बदला लेने के लिए उत्तेजित हो जाता हूँ । परन्तु तभी मुझे स्मरण आता है कि मैंने इस संसार की पीड़ित आत्माओं का हित करने का संकल्प लिया है , और इसकी शुरुआत इसी व्यक्ति से की जा सकती है जिसके चेहरे से निकली अग्नि को मैं अभी झेल रहा हूँ । 

कुछ कहने से पहले से मैं मन - ही - मन सहनशीलता तथा बोध की याचना करता हूँ । आत्मरक्षा करने की इच्छा ढीली पड़ने लगती है और मेरे मन में जड़ भरत के शब्द बिजली के समान कौंध उठते हैं । इस प्रकार मैं न केवल एक विध्वंस रोकता हूँ , अपितु मैं उस आत्मा पर एक सकारात्मक छाप भी छोड़ता हूँ जो बाह्य रूप से मुझे हताहत करने वाला दिखायी दे रहा था । 


श्रील प्रभुपाद लिखते हैं , " आध्यात्मिक पथ के साधक का कर्तव्य है कि सावधानीपूर्वक अपनी कामनाओं तथा क्रोध पर नियंत्रण लाने का प्रयास करे । " ( गीता 5.23 , तात्पर्य ) 

जो लोग जड़ भरत जैसे महान् संतों का अनुगमन करते हुए आत्मनियंत्रण करने का प्रयास करते हैं , वे सम्पूर्ण समाज के हितैषी होते हैं । 

उनके आत्मनियंत्रण का प्रभाव श्रील प्रभुपाद लिखते हैं , " आध्यात्मिक पथ के साधक का कर्तव्य है कि वह सावधानीपूर्वक अपनी कामनाओं तथा क्रोध पर नियंत्रण लाने का प्रयास करे । " उनके चारों ओर लोगों को प्रभावित करता है और उनको भी जो भविष्य में आने वाले हैं उनके आत्मनियंत्रण का प्रभाव कालातीत हो जाता है । . 

द्विजमणि गौर दास श्रीमान संकर्षणदास अधिकारी के शिष्य हैं । एमोरी यूनिवर्सिटी ऑफ अटलांटा से अंतर्राष्ट्रीय राजनीति में डिग्री प्राप्त करने के बाद 2008 में वे इस्कॉन में आये । इस समय वे इस्कॉन ओरलैंडो में मंदिर संचालक हैं और स्थानीय विश्वविद्यालय में प्रचार एवं संकीर्तन कार्यक्रम करते हैं ।


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